आज मन कर रहा था लिखने का । सोचा ज़िन्दगी पर थोड़ी स्याही ज़ाया की जाए । लेकिन ये वर्चुअल दुनिया है, यहाँ स्याही ही नहीं होती । लेकिन कड़वा लिखने पर कालिख ज़रूर लग जाती है । बस यही सब चल रहा है । ज़िन्दगी बीत रही है किताबों के पन्नो के संग और बीच । वैसे आम तौर पर ज़िन्दगी बीतती नहीं, गुज़रती है लेकिन यहाँ फ़िलहाल ज़िन्दगी जनरल के डिब्बे में अपने पिछवाड़े को किसी तरह सीट पर टिका कर लंबी रात बिताने जैसी लग रही है । सब साला बेमानी लगता है कभी कभी । हर आदमी हरामी लगता है कभी कभी । फिर अगले ही पल खुद पर और दुनिया पर भरोसा कर शांत हो जाता हूँ और चुपचाप कुर्सी के हत्थे पर टिक जाता हूँ । जब जब ऐसा सोचा है कि उम्मीद की कोई किरण दिख रही है तो थोड़ी देर में पता लगता है कि वो मेरी उम्मीद की किरण नहीं मोबाइल की टार्च है जैसे वो अपनी गिरी हुयी किस्मत खोज रहा हो । दुनिया साली मोबाइल से निकलती है और टीवी में घुस जाती है, फिर टीवी से निकल कर भीड़ में तब्दील होकर मार्किट बन जाती है । हम सोचते थे टाइम के साथ साथ सब ठीक हो जायेगा, लेकिन साली ज़िन्दगी को रोज़ सुबह उठकर ईयरफोन के तारों की तरह सुलझाना पड़ता है । हम भी साला जिस भाषा में बात करते हैं उसी में इतनी कोम्प्लेक्सिटी है तो दुनिया तो हमारे जैसों से भरी पड़ी है चलिये, निकलते हैं, वक़्त हो गया । आप भी टिके रहिये
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